शनिवार, 12 दिसंबर 2009

बोया पेड़ बबूल का !

एक कहावत है बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहां से होय, पाकिस्तान इन दिनों अपने ही बोये बबूल के कांटों से लहूलुहान है। डाल का हर कांटा आज उनके शरीर को ही छेद रहा है और उसकी कराह, खुद उसका ही सीना फाड़ रही है। भारत के खिलाफ खड़ी की गई आतंकियों की फौज आज खुद उसके लिए नासूर बन चुकी है।
आतंकियों के हौसले इतने बुलंद है कि पाकिस्तान की तमाम सुरक्षा व्यवस्था बौनी साबित हो रही है और सेना के ठिकानों से लेकर पवित्र मस्जिद तक, कमोवेश रोज, कहीं न कहीं, बेखौफ आतंकियों के हमले जारी हैं। पहले बाजार, सरकारी इमारत, नेता और सरकारी लोग निशाने पर थे, अब मस्जिद भी महफूज नहीं। खुदा के घरों में ही, खुदा की इबादत करने वाले बेकसूर लोगों जान लेने में आतंकियों को कोई हिचक नहीं।
बेरहमी इतनी बढ़ चुकी है कि उन्हें बच्चों पर भी तरस नहीं। 4 दिसंबर को रावलपिंडी मस्जिद ब्लास्ट में करीब चालीस लोगों की जान गई, जिनमें 17 मासूम बच्चे हैं। वो मासूम बच्चे, जिनके लिए मजहब अभी खुदा को दिल से लगाने जरिया था, नफरत की दीवार खड़ी करने का रास्ता नहीं बना था।
मस्जिद पर आतंकियों के हमले ने पाकिस्तान को हिला दिया है। वहां हर किसी अब लगने लगा है कि आतंकी इंसानियत के दुश्मन हैं और धर्म या ईश्वर से उनका कोई लेना-देना नहीं। धार्मिक जगहों पर तो भारत में भी आतंकी हमले होते रहे हैं। ये बात दीगर है कि पाकिस्तान ने कभी ईमानदारी से ऐसी वारदातों की खिलाफत नहीं की। बल्कि आतंकवादियों को वहां के सियसतदां से शह मिलता रहा और यहां के धार्मिकस्थल बेगुनाहों के खून रंगते रहे। चरार-ए-शरीफ, हजरतबल से लेकर हैदराबाद की मस्जिद, अजमेर शरीफ और वाराणसी से् लेकर अक्षरधाम मंदिर तक आतंकियों सॉफ्ट निशाना रहे हैं और आतंकियों ने तो बिना भेदभाव दोनों समुदायों को निशाना बनाया है।
बहरहाल रावलपिंडी मस्जिद ब्लास्ट की पाकिस्तान में हर तबके ने आलोचना की है। धर्म गुरु कह रहे हैं कि ऐसे हमले इस्लाम के खिलाफ हैं और लोगों की जान लेने वाले खुदकुश हमलावर को जन्नत नहीं, दोजख में जाना होगा। राजनीतिक हलकों में भी आतंकवाद पर लगाम लगाने की पुरजोर मांग उठने लगी है। रहमान मलिक कह रहे हैं कि ऐसे लोग मुल्क के गद्दार हैं, इन पर रोक लगाने के लिए सभी पार्टियों की मदद लेंगे। मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट ने आतंकवाद पर लगाम लगाने के लिए कड़े कानून बनाने और अलग इदारा कायम करने की पुरजोर वकालत की है।

कानून और भाषण तो अपनी जगह ठीक है, लेकिन एक चीज शायद सबसे ज्यादा जरूरी है। पाकिस्तान में शिक्षा की कमी और गरीबी सबसे बड़ी समस्या है और यही आतंकवाद की जड़ भी है। गरीबी की वजह से एक बड़ा तबका आधुनिक शिक्षा से महरूम है और कट्टरपंथियों के चंगुल में है। मदरसे (जहां धर्म की शिक्षा दी जाती है) आज आतंकियों को पैदा करने वाली फैक्ट्री बन चुके हैं और यहां से निकलने वाले भस्मासुर अब पाकिस्तान को भी भस्म करने के लिए आतुर है। इस लिए जरूरत जड़ पर चोट करने की ज्यादा है।

राज्य नहीं, रोटी की बात करो !

जनता को भरमाने के लिए नेताओँ को नया मुद्दा मिल गया है। वाणी में मलाई लपेट कर पार्टियां मैदान-ए-जंग में कूद पड़ी हैं। अब होगा सबका कल्याण। सुन लो जनता-जनार्दन, अब तुम्हारी सारी तकलीफें खत्म हुईं समझो। हमें पता चल गया है तुम्हारे दरिद्र होने का राज। देश का हर तीसरा आदमी दरिद्र है। सुरेश तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट बेमानी है।
सुनो... सुनो, तुम्हारी भुखमरी के लिए हम या हमारी सरकारे नहीं, बड़े राज्य जिम्मेदार हैं। भूल जाओ महंगाई की बात, सड़कों पर आओ, छोटे राज्य के लिए अपना खून बहाओ, नए राज्य में तो, खुशहाली खुद-ब-खुद तुम्हारी झोली में भर जाएगी। महंगाई... रोटी, सब्जी, आटा, दाल को लेकर शोर बंद करो। हमने दिया है नया नारा। छोटे राज्य बनाओ, अपनी खुशियों का संसार बसाओ।
पूरे देश में लोगों को भरमा कर तूफान लाने की राजनीतिक साजिश शुरू हो गई है। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना में लोग सड़कों पर क्या उतरे, यूपी, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, हर जगह, नेताओं को जल्दी पड़ी है। मुद्दा कोई और न हथिया ले जाए।
लालू जी को बिहार के लोगों की चिंता एक बार फिर परेशान करने लगी है। चारा में लपेट कर बिहार को चाटने की तोहमत झेल चुके लालूजी कह रहे हैं, मिथिलांचल भी बनाओ। पिछले चुनाव में पटखनी खा चुकी आरजेडी को मिथिलांचल के जातीय समीकरण से आ रही सत्ता की खुशबू मदहोश कर रही है।
दार्जलिंग की पहाड़ियों में गर्त हो चुके गोरखा जनमुक्ति मोर्चा(जीजेएम) में भी तेलंगाना ने नई जान फूंक दी है। 96 घंटे ठप रहेगी तराई। अलग गोरखालैंड बनाओ, नहीं तो दिल्ली तक दिखा देंगे अपनी ताकत। जीजेएम ने खुली धमकी दे दी है। इस बार जीजेएम कुछ ज्यादा ही उत्साहित है क्योंकि उसे चाणक्य मिल चुका है। जीजेएम के चाणक्य हैं जसवंत सिंह। वही जसवंत सिंह जो कल तक बीजेपी में थे और छोटे राज्यों के घोर विरोधी थे। फिलहाल दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। बेघर हुए जसवंत सिंह को एक स्थायी जमीन की तलाश है और जीजेएम को एक ऐसा मार्गदर्शक चाहिए, जो दिल्ली की गुत्थियों को सुलझा सके और मकसद हासिल करने के लिए सटिक रणनीति बनाने में उसकी मदद करे। उसे भरोसा है कि दिल्ली की राजनीति को अच्छी तरह समझने वाले जसवंत सिंह गोरखालैंड के लिए असली चाणक्य साबित होंगे। हालांकि ममता दीदी ने ये कह कर पेंच फंसा दिया है कि टीएमसी को पश्चिम बंगाल का विभाजन मंजूर नहीं। यानी इस बार भी लड़ाई आसान नहीं होगी।
तेलंगाना की आग से यूपी भी गर्म हो रहा है। तेलंगाना की आड़ में हरित प्रदेश को लेकर अजित सिंह प्लान बनाते रह गए और मुद्दा माया बहन ले उड़ीं। फटाफट प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाया और कह दिया, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ साथ बुंदेलखंड भी बनना चाहिए। वो कहती है कि बीएसपी को पूर्वांचल से भी विरोध नहीं। यानी आंदोलन की आग से यूपी का कोई कोना अछूता नहीं बचे। जितना यूपी तपेगा, नेताओं का यश उतना ही बढ़ेगा। यूपी में समाजवादी पार्टी, बीजेपी छोटे राज्यों के विरोध में खड़ी है तो कांग्रेस ने दबे स्वर में समर्थन की बात कर मुद्दे पर अपना दावा जता दिया है।
अब देश भर में इतनी गर्मी हो, तो महाराष्ट्र भला कैसे ठंडा रह सकता है। अलग विदर्भ तो वहां स्थायी मुद्दा है, जो वक्त-बेवक्त कमजोर होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को ताकत देता रहा है। कोई दमदार पार्टी विदर्भ को हवा दे, इससे पहले शेर ने दहाड़ सुना दी है। शिवसेना ने साफ कह दिया है कि उसे अलग विदर्भ मंजूर नहीं।
बहरहाल छोटे राज्य के विरोध और समर्थन का खेल जारी है और आगे भी जारी रहेगा। लेकिन जरूरी है कि जनता इस खेल को समझे। नौ साल पहले तीन छोटे राज्य बने थे। झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़।
झारखंड में आदिवासी आज भी भूख से मरते हैं। बेरोजगारी चरम पर है। बिहार से अलग होने के बाद भी नक्सली हिंसा में वहां रत्तीभर कमी नहीं आई है। वहां के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा सहित कई मंत्री ५५ हजार करोड़ के महाघोटाला में आरोपी हैं।
छत्तीसगढ़ में भी भूख बड़ी समस्या बनी हुई है। नक्सली हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। छोटे राज्यों का समर्थन करने वालों को वहां के विकास के लेखाजोखा पर नजर जरूर डाल लेना चाहिए और आंदोलन में कूदने से पहले इन्हें उत्तराखंड के सीधे-साधे लोगों से भी जरूर पूछना चाहिए कि नौ में सालों उन्हें कितना और क्या मिला, जो उत्तर प्रदेश के साथ रहते नहीं मिला था।
ब्रज

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

मराठी नवचेतना का आगाज

मराठा छत्रप लहूलुहान है। चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है अपनों ने ही पीठ में छुरा घोंप दिया। मेरी चौवालिस साल की कुर्बानी बेकार गई। मराठा अस्मिता के लिए मैंने अपनी जिंदगी होम कर दी, लेकिन मराठी ही दगाबाज निकले। सत्ता की आस लगाए बैठा रहा, हर बार धोखा, पिछली बार भी धोखा, इस बार भी धोखा। छत्रप पानी पी-पी कर मराठियों को कोस रहा है। मराठियों, दिमागीतौर पर तुम मर चुके हो। तुम सोच नहीं सकते, देख भी नहीं सकते। तुमने तमिलनाडु के लोगों से अब तक कोई सीख नही ली, जहां करुणानिधि और जयललिता के अलावा न कोई राज है और न ही राजनीति। तुमने गुजरात से भी कुछ नहीं सीखा। छत्रप का मराठा प्यार छू मंतर हो चुका है। कल तक जो अपने थे, आज उनके लिए जुबान पर सिर्फ जहर ही जहर है। वो महाराष्ट्र के लोगों से पूछ रहा है मेरी खता तो बता। क्यों मुझे दूध में गिरी मक्खी तरह निकाल फेंका।

महाराष्ट्र की जनता ने चुनाव में इस बार भी जो फैसला सुनाया है उससे शिवसेना जितनी आहत है, शायद इससे पहले कभी नहीं रही। सामना में शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे के सब्र का बांध टूट पड़ा है। उन्हें दुख है कि 44 साल की मेहनत बाद भी मराठी उनकी घुट्टी पीने को तैयार नहीं। मराठी अस्मिता को बचाने के लिए भाषा, परप्रांतीय जैसे मुद्दे उसने भुला दिए और कांग्रेस-एनसीपी को एक फिर गद्दी सौंप दी।

दरअसल बुज्रुर्ग ठाकरे भले ही महाराष्ट्र के लोगों को मरे दिमाग का इंसान बता रहे हों, लेकिन वहां की जनता कह रही है कि समझने की अब तुम्हें जरूरत है। भाषा या प्रांत से ज्यादा जरूरी रोटी, कपड़ा और मकान है और ये सब चीजें विकास से ही मिलेगी। जो विकास की बात करेगा, वही उन पर राज करेगा। दरअसल शिवसेना इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ कोई बड़ा मुद्दा उठा ही नहीं पाई। वो सत्ता में लौटने के लिए एंटी कम्बेंसी को तो ताकत मानती रही, लेकिन मराठवाड़ा की बेरोजगारी, विदर्भ की भुखमरी और कोंकण की लाचारी उसे नजर नहीं आई। कांग्रेस युवराज का कलावती के घर जाना भी उसे ढोंग ही लगा और अखबारों के जरिए बयानवाजी को ही सत्ता पलट का हथियार मानती रही। अब जनता ने जवाब दे दिया है तो बौखलाहट में उसे पराया बना दिया। कह दिया, किसी पर भरोसा नहीं।
चुनाव में शिवसेना की हार दरअसल मराठी नवचेतना का आगाज है और ये उनके लिए भी सबक है कि जो मराठा छत्रप की राह पर चल कर एक दिन महाराष्ट्र पर शासन करने का सपना संजोए हुए हैं। शिवसेना के लिए तो, ये गरजने का नहीं, नीतियों को बदल कर जनता को समझने का वक्त है,क्योंकि महाराष्ट्र की जनता न तो बहरी है और न ही गूंगी। आप कुछ न भी कहेंगे, तब भी आपको वो समझती है। इस लिए जनता को नसीहत न दीजिए, अपनी राह बदलिए।

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

हिन्दी चीनी बाय-बाय

खबर छोटी है लेकिन चौंकाने वाली है और वक्त रहते संभल जाने की हिदायत से भरी हुई भी है। लंदन के संडे टाइंम्स में एक खबर छपी है। चीन का आम आदमी आज भी भारत को अपना दुश्मन समझता है।
ये खबर यकीनन चिंता की बात है और देश के नीति निर्धारकों के लिए नींद से जागने का आगाज भी। क्योंकि कोई भी सत्ता आवाम की मंशा को ज्यादा दिनों तक नजरअंदाज नहीं कर सकती। चीन के लोग अगर हमें दुश्मन मानते हैं तो वो1962 को दोहरा भी सकता है।
एक हम हैं कि चीन को आज भी अपना दुश्मन नहीं समझते। उससे हमारा मानसिक रिश्ता हिन्दी चीनी भाई-भाई का ही है और उम्मीद करते हैं कि चीन पंचशील के सिद्धांत के तहत प्रादेशिक अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करेगा। लेकिन ये खबर अगाह करती है कि चीन को रिश्ते और सिद्धांतों की परवाह नही है और उसकी हरकतों को हमें गंभीरता से लेने की जरुरत है।
1962 को भुला कर हाल के दिनों में हमने चीन के साथ बहुआयामी रिश्ते बनाने की कोशिश की हैं लेकिन चीन की तरफ से जो हरकतें हो रही हैं उसे नजरअंदाज करना 1962 से भी बड़ी भूल साबित हो सकती है। याद कीजिए कुछ दिनों पहले लद्दाख में चीन ने घुसपैठ की और उसके सैनिक पत्थरों पर लाल रंग से चीन लिख कर वापस चले गए। वहां चरवाहों, गडेरियों को परेशान करना आम बात है। मीडिया में घुसपैठ की खबर के आने के बाद ही राजनीतिक गलियारे में हलचल मची। उत्तराखंड में चीनी घुसपैठ की बात वहां के मुख्यमंत्री उठा चुके हैं और उन्होंने घुसपैठ रोकने के लिए केंद्र से विशेष सुरक्षाबल की भी मांग की है। वो अक्साई चीन का इलाका अब तक दबाए बैठा है और अरुणाचल प्रदेश पर उसकी गिद्ध नजर टिकी हुई है। हालांकि चीन की ये हरकतें नई नहीं है लेकिन हाल के दिनों में इसमें इजाफा हुआ है और उसके तेवर में भी गर्मी बढ़ी है।
चीन हमारे पड़ोसियों को भी हमारे खिलाफ खड़ा करने की चुपचाप साजिश करता रहा है। चीन का ही असर है कि भारत के खिलाफ नेपाल के सुर भी अब बदले बदले नजर आते हैं। नेपाल का झुकाव आज चीन की तरफ ज्यादा है। चीन नकली नोटों की तस्करी के लिए पाकिस्तान को अपनी जमीन मुहैया करा रहा है। पाकिस्तान के तस्कर नेपाल के रास्ते भारत की अर्थ व्यवस्था को तोड़ने में जुटे हैं।
दुनिया के राजनीतिक मोर्चे पर चीन हमारा सबसे बड़ा विरोधी है लेकिन उसके घटिया सामान देश के गली-मोहल्लों में धड़ल्ले से बिक रहे हैं। भारत के साथ घरेलू व्यापार से चीन को हर साल अरबों रुपये की कमाई होती है। लेकिन चीन का पाकिस्तान प्रेम और उसके परमाणु विकास में गुपचुप मदद की बात किसी से छिपी नहीं है। यानी हम से कमाए पैसे का चीन अपरोक्ष रूप से हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल करता रहा है।
ये तो कुछ ऐसी बातें हैं जो सार्वजनिक हैं। लेकिन कई बातें ऐसी भी हैं जो हम तक मुश्किल से और कभी-कभी ही पहुंच पाती हैं। चीन के बुद्धिजीवी हमारे बारे में क्या सोचते हैं जरा इसकी भी बानगी देखिए।
हाल में ही चाइना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रटीजिक स्टडीज की वेबसाइट पर भारत विरोधी लेख जारी हुआ है। चीनी विदेश मंत्रालय को सलाह देने वाली इस संस्था के लेख में कहा गया है कि चीन को पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे मित्र देशों की मदद से भारत को 30 टुकडों में बांट देना चाहिए। लेख में भारत को हिंदू धार्मिक राष्ट्र के रूप में प्रचारित किया गया है। अब ऐसे चीन को क्या कहेंगे।
यकीनन वक्त आ गया है कि हिन्दी चीनी भाई भाई को बाय बाय कह हम चीन के साथ रिश्तों को भावना नहीं, व्यवहार के आधार पर तौलें, नहीं तो सचमुच एक दिन भेड़िया आ जाएगा, हम हाथ मलते रह जाएंगे।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

हमदम, चीनी कम है चीनी कम!

आजकल सुबह की प्याली कुछ ज्यादा ही कड़वी हो गई है। दूधवाला, न तो दूध में पानी मिला रहा है और न ही टेस्ट बदलने के लिए श्रीमतीजी चाय में कालीमिर्च डाल रही हैं, फिर भी महंगे से महंगे ब्रांड की चाय भी सुबह-सुबह स्फूर्ति और ताजगी नहीं जगा पा रही है। स्फूर्ति जगाए, ताजगी लाए..., धत्... सब बकवास। सुबह- सुबह मुंह में जो कड़वाहट भर जाती है, वो दिनभर खत्म होने का नाम नहीं लेती।
दरअसल हर घर में इन दिनों मिठास पर डाका पड़ गया है। चाय, दूध सबसे चीनी गायब है। एक महीने में चीनी की कीमत इतनी बढ़ गई है कि आजकल दुकान पर पहुंचते ही लोगों की जेब, चीनी को दूर से ही नमस्कार करने लगी है। बोरियों में भरी चीनी देखकर जी तो हर किसी का ललचाता है, लेकिन कीमत की तख्ती मायूस कर देती है और जेब कहती है...छोड़ो यार, चीनी कौन सी पेट भरने की चीज है, चावल खरीद कर ही घर लौट चलो। चीनी का भाव इन दिनों 35 रुपये चल रहा है। शादी-विवाह का मौसम नहीं, पर्व-त्योहार भी दूर हैं, फिर भी लोग समझ नहीं पा रहे कि चीनी में अचानक आग क्यों लग गई है?
तो सुनिए, दरअसल ये सब एक मंत्रीजी की कृपा है। मंत्रीजी की एक आकाशवाणी ने सोये हुए भस्मासुरों को जगा दिया और वो रातोंरात चीनी का स्टॉक निगल गए। जी हां यही सच्चाई है और इस सच्चाई का बयान खुद कृषि मंत्री शरद पवार ने किया है। पवार ने सिर्फ इतना कहा कि इस साल चीनी के उत्पादन में गिरावट आएगी। मंत्रीजी तो बयान देकर सो गए, लेकिन इस बयान से जमाखोरों की नींद खुल गई। बाजार में जमाखोर सक्रिय हो गए और मुनाफे के लिए लाखों क्विंटल चीनी गोदामों में सील कर दी। जब तक ये बात किसी को समझ आती, देर हो चुकी थी और चीनी की कीमत रॉकेट की तरह आसमान में पहुंच गई, मुनाफखोर चांदी काटने लगे और आम आदमी मिठास से महरूम हो गया।
खैर अब सरकार जागी है और महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कई जगहों पर छापे में हजारों क्विंटल चीनी बरामद कर ली गई है। टास्क फोर्स भी बन रहे हैं और जमाखोरों की धरपकड़ भी जारी है। लेकिन एक मिनट रुकिए। बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इतनी कवायद से आपके प्याले में जल्द मिठास नहीं लौटगी। जब्त चीनी जमाखोरों के गोदाम से निकल कर सरकारी गोदामों में पहुंच गई हैं और कागजी खानापूर्ति के बाद ही ये बाजार में आएगी। यानी आज जब्त गई चीनी को बाजार में आने में महीने-दो महीने तो लग ही जाएंगे। इस लिए दाम बहुत जल्द कम होने के आसार तो फिलहाल नहीं ही दिखते।
चिंता एक और बात की है। मंत्री जी ने कहा चीनी का उत्पादन कम होगा, तो बाजार से चीनी छूमंतर हो गई। मंत्रीजी ने ये भी कहा है कि धान की पैदावार में भी कमी आएगी, तो क्या आने वाले दिनों में थाली से चावल भी गायब हो जाएगा। आम आदमी को डर सता रहा है कि अगर प्रशासन का रवैया ढीला रहा तो जमाखोरों को फिर कोई नहीं रोक पाएगा।
बहरहाल कड़वी सच्चाई यही है कि चीनी के रंग-ढंग ने लोगों के दिमाग की ताजगी छिन ली है। एक प्याली कड़वी चाय के साथ सुबह की शुरुआत कैसी होती है, जिन्हें चाय की आदत है, जरा उनसे ही पूछ कर देखिए। मजे की बात है कि खराब चाय के बहाने रोज-रोज पत्नी को झिड़कियां सुनाने वाले पति इनदिनों मौन हैं, क्योंकि श्रीमतीजी कह रही हैं- मेरे हमदम, चीनी कम है, चीनी कम!

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

बासठ की बेबसी

पार्क के पूर्वी कोने में मंडली जमी थी।15 अगस्त की वजह से फिंजा में अचानक देशभक्ति की तरंगे तैरने लगी थी, सो बहस तो शुरू हुई आजादी की गलियों से, लेकिन दो मिनट बाद ही मुद्दा विकास, महंगाई, बेरोजगारी को छूता हुआ, सरकार की नाकामी पर आकर ठहर गया। हुसैन भाई को छोड़ कोई ये मानने को तैयार नहीं था कि विकास की रफ्तार में हमने भी अपना एक मुकाम बनाया है। वर्माजी जोर-जोर से कह रहे थे चीन को देख लीजिए, वहां के लोग कमाल के हैं, मेहनती और दिमाग वाले भी, तभी तो हमारे गणपति अब चीन से आ रहे हैं और ड्राइंग रूम के कोने में लाफिंग बुद्धा ठहाके लगा रहा है। चीन की हर चीज पांच गुनी सस्ती, कमाल है भई। एक दिन दुनिया पर राज करेगा चीन।
शर्माजी ने हां में हां मिलाई, भई, विकास तो इसे कहते हैं। अब तो किचन में रोटी भी चीन से ही आएगी। सस्ती, मीठी और मुलायम। और एक हम हैं। लाल किले से सिर्फ भाषण ही सुनते आ रहे हैं। महंगाई ने रीढ़ तोड़ रखी है। सरकार ने क्या किया अब तक। न घर में सुरक्षित, न बाहर। बीस सालों से एक ही मुद्दा आतंकवाद...। आतंकवाद रोकने की बात सुनते-सुनते अब तो कान पक गए हैं। इच्छाशक्ति ही नहीं है किसी में, नहीं तो आतंकियों और आतंकवाद की तो ....। चीन क्यों नहीं जाते आतंकी?
चुपचाप सुन रहे हुसैन भाई से रहा नहीं गया तो बोल पड़े, शर्मा जी हमारी भौगोलिक स्थिति चीन से अलग है। एक साथ खड़े कर दें तो कौन भारतीय है, कौन बांग्लादेशी और कौन पाकिस्तानी, पहचान लेंगे आप क्या? अब पड़ोसी ही शैतान मिल जाएं, तो निपटने में टाइम तो लगेगा ही। रही बात महंगाई की, तो मंदी से पूरी दुनिया तबाह है और चीन में भी लोग भूख से मरते हैं। परेशानी ये है कि हम, आप सिर्फ बातें करते हैं, बातों के अलावा कुछ नहीं करते। चीन में हमारी उम्र के बूढ़े भी काम करते हैं। दुनिया पर चीन चाहे जब राज करेगा, लेकिन उसकी सस्ती चीजों को खरीद कर हम उसके आर्थिक गुलाम तो अभी ही हो गए हैं।
मंडली में बैठे मेहरा जी के सिर पर से पेड़ की छाया हट गई थी और सो सूरज की तेज गर्मी में उन्हें बहस का मजा नहीं आ रहा था। धीरे से बुदबुदाए, क्या घिसी-पिटी बातों को लेकर ये सब बैठ गए हैं। आतंकवाद और आतंकी.... कौन से हमारे ही घर में ही वो घुसे आ रहे हैं। कश्मीर में समस्या नहीं थी, तो पंजाब में, असम में परेशान थे। अपनी तो पूरी जवानी रोटी के जुगाड़ में ही निकल गई। अब बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन इससे ज्यादा कभी कुछ नहीं मिला। ये हुसैन भी फालतू की उम्मीदें लगाए बैठा है। आजादी के 62 साल हो गए। हमने क्या हासिल किया अब तक। यहां चलने की तो बात सभी करते हैं, लेकिन अबतक कितने कदम चले, किसी को पता नहीं। ये देश भी अब बूढ़ा हो गया है। फिर मेहरा जी अनमने से इधर-उधर देखने लगे, तभी उनकी नजर दूर से आते रामबाबू पर पड़ी।
धूप से परेशान रामबाबू सुस्त गति से चलते हुए उनकी तरफ ही चले आ रहे थे। लोगों को लगा रामबाबू शायद बीमार हैं। पूछने पर रामबाबू ने बताया- नौकरी से रिटायर हो गया हूं, 62 का हो गया न भई.... और कोई बात नहीं है.....
मेहरा जी को अच्छा नहीं लगा, रामबाबू बीमार होने की बात करते तो शायद बातचीत का मुद्दा बदल जाता। योग, आसन और बाबा रामदेव की जड़ी बूटियों पर उन्हें भी धाराप्रवाह बोलने का मौका मिल जाता।
लेकिन जैसे ही रामबाबू के मुंह से '62' शब्द निकला, बड़बोले यादव जी के मुंह की खुजलाहट बढ़ गई। रहा नहीं गया, बीच में ही बिना सोचे समझे टपक पड़े। हां हां, 62 का होने पर इंसान का हाल बदतर तो हो ही जाता है। भाई, बासठ मतलब है बुढ़ापा और बुढ़ापा आ जाए, तो इंसान किसी काम का नहीं रह जाता। बोलने लगे, रामबाबू को तो अभी कितने काम करने हैं। लड़के को सेटल करना है, घर बनाना है और पत्नी को केदारनाथ, बद्रीनाथ भी घुमाना है। बड़ा बोझ है भई इनपर।
यादवजी की बात सुन हुसैन भाई से फिर नहीं रहा गया, बीच में ही यादवजी की बात काट दी। हूं.., ये कैसी बात कह रहे हैं आप यादव जी। आजकल बासठ साल की उम्र कोई उम्र होती है। आपने दयानंद को नहीं पढ़ा। वो तो 45 साल को शादी का सर्वोत्तम उम्र मानते थे। विदेशों में तो पचास साल में शादियां करने का रिवाज बढ़ रहा है और फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी 54 साल की उम्र में पिता बनने का जज्बा रखे हुए हैं।
यादवजी की बकवास से एक क्षण निराश हुए रामबाबू को हुसैन भाई की बातों से हिम्मत मिली। रामबाबू बताना चाहते थे कि उम्र भले ही 62 हो गई है, लेकिन वो अभी बूढ़े नहीं हुए हैं उनमें अपनी चुनौतियों को पूरा करने का दम बरकरार है। लेकिन कुछ बोलते इससे पहले ही पार्क के दूसरे कोने पर बैठने वाला छोटू चाय दे गया और बात अधूरी छूट गई।
उधर चाय की पहली घूंट ने ही अग्रवाल साहब का भी मुंह खोल दिया। बोलने लगे, हुसैन भाई फिरंगियों से खुद की तुलना मत कीजिए। उनका क्या है, अच्छा खाते-पीते हैं, खुली हवा जीते हैं, हमारी तरह उनकी जिंदगी तंग और बंद नहीं। इसीलिए तो 80 साल में भी बिना च्यवनप्राश खाए जवानों की तरह डोलते रहते हैं।
शर्माजी को भी हुसैन भाई की बात पसंद नहीं आई। चाय की मिठास में तर होने के बाद बकवास करने के लिए उनका होंठ फिर फडफड़ाने लगा था। कहने लगे, भाई जान ये हिन्दुस्तान है, यहां तो साठ में ही लोग सठियाने लगते हैं। आप कैसी बातें कर रहे हैं। साठ-बासठ के बाद तो इंसान भजन-कीर्तन के लायक ही रह जाता है, हमलोगों की तरह।
हुसैन भाई सोचने लगे कैसे लोगों के बीच फंस गया हूं। मंडली से उठे और तेजी से घर की तरफ चल पड़े। रास्ते में सोचने लगे, क्या हो गया है इन लोगों को। उम्र हो गई तो क्या, कैसी निराशाजनक बातें कर रहे हैं ये लोग। सब मिलकर, पहले खुद और फिर पूरे देश को बूढ़ा घोषित करने पर तुले हैं। बासठ साल ही अगर बुढ़ापे की निशानी है तो अभी कल ही तो हमने आजादी की बासठवीं वर्षगांठ मनाई है। तो क्या देश भी बूढ़ा हो गया। अब इन्हें कौन समझाए कि हम अगर कुछ कर नहीं सकते, लेकिन काम करने वालों का हौसला तो बढ़ा ही सकते हैं। चुनौतियों को पूरा करने के लिए उम्र नहीं, जज्बे की जरूरत होती है और देश भी बूढ़ों के नहीं, नौजवानों के दम पर चलता है। जिसका जज्बा जवान है, वही नौजवान है। मन ही मन सोचा, इनकी छोड़ो, तन न सही, मन से तो मैं बासठ का पहलवान हूं और कम से कम, मेरे जैसे लोगों के रहते तो ये देश हरगिज बूढ़ा नहीं हो सकता है। पीछे मुड़ कर देखा तो रामबाबू भी तेज चाल में उनके साथ कदम मिलाने केलिए बढ़े चले आ रहे थे। हुसैन भाई को अहसास हुआ मंजिल की तरफ बढ़ते वो अकेले मुसाफिर नहीं, और भी राही हैं साथ।

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

सम्मान का अपमान तो मत कीजिए

क्रिकेट अब देश से बड़ा हो गया है और क्रिकेट के खिलाड़ी तो शायद इससे भी बड़े हो गए हैं। आप माने या न माने, इससे फर्क कोई नहीं पड़ता। देश के दो बड़े क्रिकेटर इसी मुगालते में जी रहे हैं। जी हां, महेंद्र सिंह धोनी और हरभजन सिंह, देश का सम्मानित अवॉर्ड पद्मश्री लेने के लिए सम्मान समारोह में नहीं गए। वजह, मीडिया की खबरों की माने, तो किसी ऐड फिल्म की शूटिंग में व्यस्त थे।
सम्मान समारोह में हाजिर नहीं हो पाना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन जिस वजह से ये खिलाड़ी वहां मौजूद नहीं हुए, ये दिल तोड़ने वाली बात जरूर है। क्या इनके लिए पैसा, देश से बड़ा हो गया है?
धोनी और हरभजन बहुत अच्छे खिलाड़ी हैं और क्रिकेट में इनका योगदान देश के लिए गर्व की बात है। लेकिन मान-सम्मान बढ़ाने वाले दूसरे खिलाड़ी भी देश में हैं। जरा याद कीजिए अभिनव बिंद्रा का ओलंपिक में गोल्ड मेडल। हमें तो पहलवान सुशील कुमार और पहलवान बिजेंद्र कुमार भी याद हैं। इन लोगों ने भी ओलंपिक में मेडल जीत पूरी दुनिया में भारत का सर ऊंचा किया है। देश को पहला ओलंपिक गोल्ड मिला या 52 साल बाद ओलंपिक कुश्ती में भारत को मेडल मिला था, तब निश्चिततौर पर देश के 125 करोड़ लोगों को, किसी मैच जीतने से ज्यादा खुशी मिली थी। बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल या जूनियर विम्बलडन विजेता यूकी भांबरी भी हमारे सरताज हैं। हर भारतीय का इन्होंने भी सिर ऊंचा किया है। और भी खिलाड़ियों की लंबी फेहरिस्त है, जिन पर हमें नाज है। लेकिन पद्मश्री के लिए चुना गया धोनी और हरभजन को, तो इन्हें भी इस सम्मान का अनादर नहीं करना चाहिए।
बहरहाल धोनी चुप हैं और हरभजन कह रहे हैं वो परिवार के साथ थे, इस लिए सम्मान समारोह में शामिल नहीं हुए। हरभजन जी, परिवार के साथ रहिए, जरूर रहिए, लेकिन पूरा देश भी आपका परिवार है, वो भी आपको सर-आंखों पर बैठाता है, उसका अपमान तो मत कीजिए।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

झांसे का राजा

महासमर की भेरी गूंज उठी है। सत्ता का फाइनल करीब है और कुर्सी के लिए नेता लाव-लश्कर के साथ चुनावी जंग में कूद पड़े हैं। जीत का दावा हर कोई कर रहा है। कोई तीसरा मोर्चा बना रहा है तो शरद पवार जैसे नेता यूपीए से मुंह मोड़ने का दिखावा कर, तीसरे मोर्चे के सहारे पीएम की कुर्सी की राह तलाश रहे हैं। पासवान, लालू, मुलायम चौथा मोर्चा बना कर किंग न सही, किंग मेकर बनने की जुगाड़ बैठा रहे हैं। सत्ता से किनारा कर दिए गए लेफ्ट को मायावती का आसरा है।
खींचतान इतनी है कि यूपीए में सोनिया, शरद पवार को नहीं रोक पा रहीं और एनडीए में आडवाणी को नीतीश का साथ छूटता दिख रहा है। गठबंधन में सबसे करीबी रहे लालू यादव की बिहार में जब सोनिया गांधी आलोचना करती हैं और नीतीश बीजेपी के साथ तालमेल पर अफसोस जताते हैं तो साफ दिख रहा है कि अभी नहीं तो, चुनाव के बाद कुछ अलग तरह की खिचड़ी जरूर पकेगी।
बहरहाल नेताओं की अब तक की बहसबाजी से ये तो साफ हो गया है कि सबको
अपनी कुर्सी की ही चिंता है। जनता की तो कतई नहीं। इस लिए इस चुनाव में किसी पार्टी के पास जनता के लिए कोई मुद्दा भी नहीं है।
अभी पार्टियों के बीच एक दूसरे को पछाड़ने के लिए जो बहस जारी है उसमें विकास की बात नहीं हो रही, प्रधानमंत्री के उम्र पर वार-पलटवार हो रहे हैं। नरेंद्र मोदी कांग्रेस को पहले बुढ़िया, फिर गुड़िया कहते हैं, तो प्रियंका गांधी नरेंद्र मोदी, आडवाणी को जवान बता व्यग्य की मुस्कान छोड़ रही है। आडवाणी, मनमोहन को कमजोर बता रहे हैं, तो कभी नहीं बोलने वाले मनमोहन तिलमिला कर आडवाणी की बखिया उधेड़ रहे हैं। राहुल गांधी पीएम होंगे या नहीं, इसकी चिंता कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी को दिख रही है।
तो जनता -जनारदनों इस बार की लड़ाई में आप कहीं नहीं हो। इस बार की लड़ाई, राजाओं की अपनी है। जनता भी इसे समझ चुकी है। राजनीतिक ड्रामेबाजी जारी है और जनता, रिंग मास्टर को रोल में खूब चटकारे लेकर खामोशी से तमाशा देख रही है। वो खुश है, चलो इस बार इन झांसे के राजाओं को अपनी ही पड़ी है, वर्ना सब लंबे चौड़े वादों का पाशा फेंक उसकी सरदर्दी बढ़ा जाते। लोगों के लिए तय करना मुश्किल हो जाता कि किसे वोट दें और किसे न दें।
बहरहाल जनता की खामोशी ने ही सभी पार्टियों की धड़कन बढ़ा दी है। सबको डर सता रहा है कि कहीं वोट की उलटी चोट उन पर ही न पड़ जाए। इसीलिए लोगों को झांसे में रखने के लिए तमाशा जारी रखना उनकी मजबूरी भी है
तो देखते रहिए मनोरंजन का उम्दा तमाशा वो भी बिल्कुल मुफ्त।

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

आ गईं हैं कैट !

लड़कियों को अदना समझने वाले लड़कों, होशियार। अब घर के साथ, दफ्तर के मैनेजमेंट में भी जल्द ही लड़कियों का दबदबा होगा और अपनी बुद्धि पर इतराने, इठलाने वाले लड़के बॉस-बॉस कह कर उनके पीछे घुमते नजर आएंगे। जी हैं, कैट की परीक्षा में पिछले साल के मुकाबले इस बार तीनगुना ज्यादा लड़कियां सफल हुई हैं।
आईआईएम अहमदाबाद में पिछले साल इनका प्रतिनिधित्व मात्र 6 फीसदी था, वहीं इस साल ये बढ़कर 19 फीसदी हो गया है। यानी हर पांच लड़कों पर एक लड़की ने अपने लिए सीट रिजर्व कर ली है।
ये अचानक नहीं हुआ है। आईआईएम में लड़कियों की तादाद बढ़ने के पीछे उनकी वर्षों पुरानी मेहनत इस बार रंग लाई है । दरअसल इस बार कैट की परीक्षा में दसवीं और बारहवीं के नतीजे को भी पहली बार तरजीह दी गई है। अब ये बात किसी से छिपी नहीं कि इन दोनों परीक्षाओं में लड़कियां हमेशा लड़कों से बाजी मारती रही हैं। और इनका यही मेहनत इस बार कैट की परीक्षा में काम कर गया।
ये भी सच है कि लड़िकयां शुरुआती पढ़ाई में हमेशा लड़कों से आगे रहती हैं। लेकिन जब बात उच्च, तकनीकी या किसी खास शिक्षा की आती है, जिसमें ट्रेनिंग या कोचिंग की जरूरत होती है, ज्यादतर परिवारों में लड़कियों को दबा दिया जाता हैं और लड़कों को आगे बढ़ा दिया जाता है। बड़े बूढ़े ये कह कर लड़कियों को दबा देते हैं कि इन्हें ज्यादा पढ़ा कर क्या होगा, अंत में तो इन्हें घर-गृहस्थी ही संभालनी है।
कहावत है कि मेहनत कभी बेकार नहीं जाती, और लड़कियों की प्रतिभा को आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्था ने भी पहचान लिया है।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

जया प्रदा मांगे इंसाफ

समाजवादी पार्टी की नेता जया प्रदा इनदिनों अपनी ही पार्टी के एक बडे नेता से खासी परेशान है और इंसाफ के लिए मुलायम सिंह यादव से गुहार लगाई है। जया प्रदा का आरोप है पार्टी के कद्दावर नेता आजम खां उन्हें लगातार परेशान कर रहे हैं और मुलायम सिंह ही उन्हें आजम खां से बचा सकते हैं।
जया प्रदा का आरोप संगीन है। क्योकिं पार्टी के महासचिव और मुलायम सिंह के सारथी अमर सिंह इसी बात पर पार्टी छोड़ने तक की धमकी दे चुके हैं। शायद ये पहला मौका है जब अमर सिंह ने मुलायम के खिलाफ जुबान खोला है। अमर सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि मुलायम सिंह ही आजम खां को सर पर चढ़ाए हुए हैं और पार्टी में आजम खां का कद मुलायम सिंह से भी ऊंचा है।
जया प्रदा को आजम खां से कैसी परेशानी है, इसका तो खुलासा नहीं हुआ है लेकिन अमर सिंह की धमकी कहती है कि मामला काफी गंभीर है। अब बेचारे मुलायम सिंह, चुनाव सर पर है पार्टी के लिए वोट जुटाएं या घर का झगड़ा निपटाएं।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

ये इंसाफ की शुरुआत है !

आखिरकार कांग्रेस ने जगदीश टाइटलर का टिकट काट दिया है। टाइटलर के अलावा सज्जन कुमार को भी पार्टी ने चुनाव मैदान से हटा दिया है। कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने ऐलान किया कि दोनों इस बार लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। कांग्रेस का ये फैसला 25 साल से इंसाफ लड़ाई लड़ रहे सिख समुदाय की पहली जीत है। ये पहला मौका है जब 84 के दंगों के आरोपियों को अदालत से बाहर, जनता की अदालत में कोई सजा मिली है। कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले से 84 के सिख विरोधी दंगों में मारे गए तीन हजार लोगों के पीड़ित परिवार को थोड़ी राहत जरूर मिलेगी।
जगदीश टाइटलर ये मानने के लिए तैयार नहीं कि सिख दंगों में उनका हाथ था। आज मीडिया को बुला कर फिर उन्होंने खुद को पाक-साफ बताया और अपने खिलाफ चल रहे सिखों के आंदोलन के लिए मीडिया को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया। टाइटलर का कहना था कि 12 कमीशन बने, जिसमें 13,500 हलफनामे दायर हुए और किसी में उनका नाम नहीं है। उनके खिलाफ सिर्फ दो हलफनामे हैं ,जिसकी जांच हो रही है। उनकी दलील है कि एनडीए सरकार में भी उन्हें इस मामले में क्लीन चिट मिल चुकी है।
लेकिन सिख समुदाय टाइटलर और सज्जन कुमार को माफ करने को तैयार नहीं। इनका आरोप है कि सरकार सीबीआई पर दबाव डाल रही है और इसी लिए इन दो बड़े नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही।
उधर दिल्ली के कड़कड़डूमा कोर्ट में आज सीबीआई ने अपना जो रुख दिखाया है उससे भी तय है कि दंगा पीड़ितों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी है। सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट दे दी है और इस रिपोर्ट को कोर्ट माने या न माने, अदालत में इसी पर आज सुनवाई थी। सुनवाई के दौरान झूठी दलील देकर सीबीआई ने कोर्ट को ही गुमराह करने की कोशिश की और अदालत के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठा दिए। अदालत ने सीबीआई को फटकार लगाई, जांच के लिए सीबीआई से दो टेप मांगे अब केस की अगली सुनवाई 28 अप्रैल को होगी।
बहरहाल चुनाव करीब है इस लिए कांग्रेस ने इन दोनों का टिकट काट
सिख समुदाय में बढ़ते आक्रोश को कम करने की कोशिश की है और इसे अच्छी शुरुआत भी माना जा सकता है। लेकिन साथ ही न्याय व्यवस्था में सुधार जरूरत भी है। क्योंकि जस्टिस डीले, जस्टिस डिनाय। इंसाफ के लिए लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी इंतजार करना पड़े , तो ऐसे न्याय का क्या फायदा।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

दिशाहीन मीडिया

गृह मंत्री पी चिदंबरम पर एक पत्रकार ने जूता फेंक पत्रकारिता ही नहीं, पूरे देश को शर्मशार कर दिया है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से ऐसी ओछी हरकत की कतई उम्मीद नहीं की जा सकती।
वाकया यू हुआ कि दिल्ली में चिदंबरम की प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद दैनिक जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह ने जगदीश टाइटलर को सीबीआई से क्लीन चिट मिलने को लेकर सवाल पूछे। चिदंबरम ने जवाब में कहा कि सीबीआई गृह मंत्रालय के अधीन नहीं आती और सीबीआई ने अभी कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपी है, इस लिए कोर्ट के फैसले का सबको इंतजार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि कोई जरूरी नहीं की कोर्ट सीबीआई की रिपोर्ट को मान ही ले। अदालत अगर जरूरी समझेगी, तो मामले की फिर से जांच के भी आदेश दे सकती है। लेकिन पत्रकार महोदय वहां चिदंबरम का जवाब सुनने नहीं, खुद को हीरो साबित करने पहुंचे थे। जनरैल ने जवाब अनसुना करते हुए चिदंबरम की तरफ जूता उछाल दिया। गुमनामी में जीने वाला अदना पत्रकार एक झटके में मीडिया की सुर्खिया बन गया।
चिंदंबरम जवाब देते वक्त भी शांत थे और इस ओछी हरकत के बाद भी शांत रहे। चिदंबरम ने जरनैल को माफ कर दिया है और कांग्रेस ने भी कोई मामला दर्ज नहीं किया। अब जरनैल को भी अपनी करनी पर पछतावा है। अब वो अपनी गलती मान रहे हैं और चिदंबरम से माफी भी मांगना चाहते हैं। मामला रफा-दफा हो गया है। लेकिन मीडिया तो पढ़े लिखे लोगों की जमात है और ये जमात आखिर किस दिशा में जा रही है। ये सोचने वाली बात जरूर है। क्योंकि आज की हरकत पत्रकारिता के पतन का आखिरी पायदान ही है। भ्रष्ट पत्रकार, बेईमान पत्रकारों की कतार से बहुत आगे। जरनैल की इस ओछी हरकत पर पूरी मीडिया को चिंतन करने की जरूरत है। बुद्धिजीवियों याद रखिए भारत बगदाद नहीं, क्योंकि हमारी तहजीब ऐसी हरकतों की इजाजत नहीं देती। बुश पर जूता फेंकने वाला भले् ही हीरो बन गया हो, यहां ऐसी हरकत करने वाला जीरो ही रहेगा।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

मीडिया गुरु पाक

पाकिस्तान में आतंकी पैदा होते हैं, वहां कानून की नहीं चलती। लोगों में शिक्षा की कमी है, पाकिस्तान सर से पांव तक कर्ज में डूबा है। सरकार अस्थिर है और अधिकारी भ्रष्ट है। कबिलाई इलाके में आतंकी खुलेआम हथियार लेकर घूमते हैं और तालिबान, अलकायदा के लोग धमाका कर कही भी, कभी भी सौ पचास लोगों को आसानी से मौत की नींद सुला जाते हैं। पाकिस्तान के आतंकियों से दुनिया परेशान है और यही आज के पाकिस्तान की तस्वीर है।
लेकिन हम आप भले ही गौर न करें, वहां एक ताकत तबाही के राक्षसों से लगातार लड़ाई जारी रखे हुए हैं। जी हां बात पाकिस्तानी मीडिया की कर रहा हूं। पाकिस्तान में प्राइवेट इलेक्ट्रोनिक मीडिया बहुत ही शुरुआती दौर में है। लेकिन इसके साहस के आगे हिन्दुस्तानी इलेक्ट्रिनिक मीडिया कहीं नहीं टिकती।
आप पूछेंगे कि ऐसा क्या हो रहा है वहां, जो हिन्दुस्तान की मीडिया नहीं कर रही। तो सुनिए-बद से बदतर हालात में भी पाकिस्तानी मीडिया इंसाफ की लड़ाई में इमानदारी और पूरी जिम्मेदारी के साथ खड़ी है और आज भी पत्रकारिता वहां मिशन ही दिख रहा है, हिन्दुस्तान की तरह प्रोफेशन नहीं। इमानदारी इतनी कि वहां की पत्रकारिता हिंदुस्तान-पाकिस्तान में फर्क नहीं कर रही।
याद है कसाब मामला। वो पाकिस्तान मीडिया का साहसी रोल ही रहा कि पाकिस्तान को कसाब का पाकिस्तानी नागरिक होना कबूल करना पड़ा। जियो टीवी ने स्टिंग ऑपरेशन कर दुनिया को बता दिया कि कसाब फरीदकोट का ही रहने वाला है। पाक मीडिया के खुलासे से भारत का पक्ष मजबूत हुआ और पाकिस्तान मजबूर।
विदेश ही नहीं, देसी मोर्चे पर भी वहां की मीडिया ने लाजवाब कर दिया है। कुछ नमूना देखिए, आप भी कायल हो जाएंगे।
अभी थोड़े दिन पहले पाकिस्तान में जरदारी के अड़ियल रवैये से राजनीतिक संकट पैदा हो गया था, और लोग जब सड़कों पर उतरे तो, वहां की मीडिया सरकार के साथ नहीं, आवाम के साथ दिखी। सरकार पर पर इतना दबाव बना कि उसे् नवाज शरीफ के मामले को रफा-दफा करना पड़ा, चीफ जस्टिस इफ्तेखार चौधरी की बहाली हुई। चौथे से स्तंभ ने जम्हूरियत के दो स्तंभों विधायिका और न्यायपालिका को नई जिंदगी दी। समाज के सजग प्रहरी के तौर पर मीडिया की यही ड्यूटी है और वहीं के पत्रकार इसे बखूबी निभा भी रहे हैं।
हिम्मत की दूसरी बानगी देखिए। दुनिया को भले ही तालिबान और अलकायदा के आतंकियों से डर लगता हो, पाक मीडिया को इनसे कोई डर नहीं। तालिबानियों ने कुछ दिन पहले जिओ टीवी के पत्रकार की हत्या कर दी। सोचा होगा, पत्रकार डर जाएंगे, कलम बंद हो जाएगी। लेकिन पाकिस्तान में तलवार कलम को नहीं झुका पाई है।
स्वात घाटी में तालिबानियों ने एक नाबालिग को इसलिए सरेआम कोड़े से पीटा, क्योंकि उसने आतंकी से शादी करने से इनकार कर दिया था। तालिबानियों के गढ़ और मौत के मुंह में घुस कर मीडिया ने एक बार फिर अपना फर्ज निभाया है। कोड़े से पिटती लड़की का फुटेज केवल पाकिस्तान में लोगों ने देखा, बल्कि दुनिया ने भी इसे देखा। सरकार पर इतना तबाव बढ़ा कि अब उसे इस मामले की जांच की आदेश देने पड़े हैं।
जहां हर पल बंदूकें गरजती हों, जहां आतंकी इंसान को भेड़ बकरियों की तरह मार रहे हों, जहां सरकार असहाय हो, वहां मीडिया का ऐसा साहस-जय हो

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

फिर याद आए राम

राम की महिमा भारी है। कहते हैं अपने भक्तों को प्रभु राम कभी निराश नहीं करते। दिल से याद करो, तो मुरादें जरूर पूरी करते हैं। लेकिन बीजेपी निराश हैं और प्रभु राम से अंदर ही अंदर नाराज भी। रिक्शे, ठेलेवाले, सभी की मुरादें पूरी हो जाती है लेकिन प्रभु राम है कि मान ही रहे। महासमर करीब है, सिंहासन की लड़ाई में साथ देने वाले पुराने साथी एक-एक कर छोड़ गए हैं। छोड़ क्या गए, दुश्मनों की पाली में खड़े हो गए है। बंगाल में दीदी कांग्रेस के साथ हो ली हैं और आँध्र के चंद्रबाबू ने तीसरे मोर्चा को गले लगा लिया है। दुश्मन की घेराबंदी मजबूत होती जा रही है। महाराष्ट्र में दादा ठाकरे मराठा पीएम का राग अलाप रहे हैं, तो उनके गण आडवाणीजी को भला क्यों चाहेंगे। बचा-खुचा जेडीयू है, तो बीच-बीच में डफली पर अपना ही राग अलाप देता है। बड़ी मुश्किल से वरुण ने राम की अलख जगाई थी, लेकिन नीतीश ने विरोध कर किए- कराए पर पानी फेर दिया। उधर दुश्मनों के खेमे में खड़ी माया बहन ने ऐन मौके पर ही तगड़ा झटका दे दिया है। राम भक्त वरुण को गुंडा बता, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा कर कारागृह में डाल दिया । यानि वरुण के लिए कम से कम एक साल के अज्ञातवास का इंतजाम कर दिया है। हाथ-पैर मारने पर भले ही एक साल अंदर न रहे, लेकिन महीने दो महीने का तो इंतजाम हो ही गया है। इसके बाद बाहर आकर भी क्या फायदा। तब तक महासमर तो खत्म हो चुका होगा । गद्दी नहीं मिली तो ऐसे भक्त और ऐसी भक्ति किस काम की। वैसे भी चारों दिशाओं से जो समाचार आ रहे हैं, वो शुभ नहीं हैं । लाख हाथ-पैर मारने के बाद भी सिंहासन दूर होता जा रहा है, सपना चूर होता जा रहा है। जनाधार लगातार घट रहा है। तीन महीने पहले चुपचाप सर्वे कराया था। तब २२२ गणों के साथ आने की उम्मीद थी, लेकिन हाल के सर्वे में ये आंकड़ा घटकर २१० रह गया है। सिंहासन और दूर खिसक गया है। नैया कैसे पार लगेगी, गण-दूत सभी को एक ही चिंता है। कम से कम २७२ गण साथ होंगे, तब ही सिर पर ताज चढ़ेगा। आडवाणी जी दिनरात एक किए हुए हैं। लेकिन उनकी मेहनत रंग लाती नहीं दिख रही । निराशा बढ़ रही है, अंधेरा पसरता जा रहा है । कार्यकर्ता की कौन कहे, बड़े सिपहसलार भी महासमर से पहले ही पस्त नजर रहे हैं। सुषमा जी ने तो पहले ही हार मान ली है। भोपाल में खुल कर उन्होंने कह ही दिया, बहुमत मिले, तब तो सरकार बनाएंगे। राजनाथ जी हैरान हैं। दिग्गज ही पीछे हट जाएंगे, तो कार्यकर्ताओं का क्या हाल होगा। कैसे पूरा होगा २७२ का आंकड़ा। चिंतन-मनन शुरू हुआ। नीतिकारों ने कहा, रणनीति बदलनी पड़ेगी । धूल झाड़ कर नीति की पुरानी पोथियां निकाली गई। पोथियों में हर तरफ थे राम। फिर याद आ गए राम। हम अयोध्या में राम मंदिर बनाएंगे, हो गया है ऐलान। जयश्री राम। अब सब जानते हैं कि मंदिर बनाना आसान होता, तो अटल जी ने ही बनवा दिया होता। लेकिन क्या करें, जनता जनार्दन है और झांसे में ही सही, जनता को जनार्दन से तो जोड़ना ही पड़ेगा। अब श्रीराम बीच में आ गए ,हैं तो शायद जनता का दिल पसीज जाए और महासमर का रुख बदल जाए। जय सिंहासन, जय श्रीराम!