गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

मराठी नवचेतना का आगाज

मराठा छत्रप लहूलुहान है। चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है अपनों ने ही पीठ में छुरा घोंप दिया। मेरी चौवालिस साल की कुर्बानी बेकार गई। मराठा अस्मिता के लिए मैंने अपनी जिंदगी होम कर दी, लेकिन मराठी ही दगाबाज निकले। सत्ता की आस लगाए बैठा रहा, हर बार धोखा, पिछली बार भी धोखा, इस बार भी धोखा। छत्रप पानी पी-पी कर मराठियों को कोस रहा है। मराठियों, दिमागीतौर पर तुम मर चुके हो। तुम सोच नहीं सकते, देख भी नहीं सकते। तुमने तमिलनाडु के लोगों से अब तक कोई सीख नही ली, जहां करुणानिधि और जयललिता के अलावा न कोई राज है और न ही राजनीति। तुमने गुजरात से भी कुछ नहीं सीखा। छत्रप का मराठा प्यार छू मंतर हो चुका है। कल तक जो अपने थे, आज उनके लिए जुबान पर सिर्फ जहर ही जहर है। वो महाराष्ट्र के लोगों से पूछ रहा है मेरी खता तो बता। क्यों मुझे दूध में गिरी मक्खी तरह निकाल फेंका।

महाराष्ट्र की जनता ने चुनाव में इस बार भी जो फैसला सुनाया है उससे शिवसेना जितनी आहत है, शायद इससे पहले कभी नहीं रही। सामना में शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे के सब्र का बांध टूट पड़ा है। उन्हें दुख है कि 44 साल की मेहनत बाद भी मराठी उनकी घुट्टी पीने को तैयार नहीं। मराठी अस्मिता को बचाने के लिए भाषा, परप्रांतीय जैसे मुद्दे उसने भुला दिए और कांग्रेस-एनसीपी को एक फिर गद्दी सौंप दी।

दरअसल बुज्रुर्ग ठाकरे भले ही महाराष्ट्र के लोगों को मरे दिमाग का इंसान बता रहे हों, लेकिन वहां की जनता कह रही है कि समझने की अब तुम्हें जरूरत है। भाषा या प्रांत से ज्यादा जरूरी रोटी, कपड़ा और मकान है और ये सब चीजें विकास से ही मिलेगी। जो विकास की बात करेगा, वही उन पर राज करेगा। दरअसल शिवसेना इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ कोई बड़ा मुद्दा उठा ही नहीं पाई। वो सत्ता में लौटने के लिए एंटी कम्बेंसी को तो ताकत मानती रही, लेकिन मराठवाड़ा की बेरोजगारी, विदर्भ की भुखमरी और कोंकण की लाचारी उसे नजर नहीं आई। कांग्रेस युवराज का कलावती के घर जाना भी उसे ढोंग ही लगा और अखबारों के जरिए बयानवाजी को ही सत्ता पलट का हथियार मानती रही। अब जनता ने जवाब दे दिया है तो बौखलाहट में उसे पराया बना दिया। कह दिया, किसी पर भरोसा नहीं।
चुनाव में शिवसेना की हार दरअसल मराठी नवचेतना का आगाज है और ये उनके लिए भी सबक है कि जो मराठा छत्रप की राह पर चल कर एक दिन महाराष्ट्र पर शासन करने का सपना संजोए हुए हैं। शिवसेना के लिए तो, ये गरजने का नहीं, नीतियों को बदल कर जनता को समझने का वक्त है,क्योंकि महाराष्ट्र की जनता न तो बहरी है और न ही गूंगी। आप कुछ न भी कहेंगे, तब भी आपको वो समझती है। इस लिए जनता को नसीहत न दीजिए, अपनी राह बदलिए।